Thursday 23 March 2017

एक रसोइए का अपनी पत्नी के नाम पत्र

प्रिय,
बहुत बहुत याद !
कैसी हो? यह पूछना शायद बेमानी लगे फिर भी पूछ लेता हूँ.शायद इस प्रश्न के उत्तर में तुम्हे भाव प्रवाह का अवसर मिले.अपनी सुप्त अथवा उद्दीप्त कामनाओं को प्रकट करने का मार्ग मिले. विरह की वेदना कैसे व्यथित कर रही है ,इसे जानने का अवसर मिल सके .अथवा उस असीम धैर्य का परिचय मिल सके जिसके द्वारा तुम अपने अकेलेपन की पीड़ा को न सिर्फ सहन कर रही हो बल्कि अपनी जिम्मेवारिओं का भी अच्छी तरह निर्वहन कर रही हो.
रहा मेरा प्रश्न .मैं भी तो यहाँ अपनी जिम्मेवारियों के निर्वहन में ही लगा हुआ हूँ .अपने घर और गांव से सुदूर इस हिल स्टेशन के एक होटल में मुझे रसोइये का जो काम मिला हुआ है,उसको पूरी तन्मयता से करने की कोशिश कर रहा हूँ ,ताकि अपने परिवार का बोझ उठा सकूँ .यहाँ का मौसम बहुत ही सुहावना है .दूर दूर से लोग यहाँ छुट्टियां मनाने आते हैं .यहाँ के सुहाने और प्राकृतिक दृश्यों के बीच प्यार की भावना और भी पल्लवित और पुष्पित होती है .परन्तु मेरे भाग्य में तो विरह की आग में दग्ध होना ही लिखा है . यहाँ आने वाले पर्यटक मेरे बनाये खाने की तारीफ करते हैं .किन्तु मुझे तो तुम्हारे हाथों की बनाई हुई नरम मुलायम रोटियों की याद आती है . प्रिय कभी कभी मैं सोचता हूँ कि चूल्हे की आग से ज्यादा क्या विरह की आग दग्ध करती है ? तुम तो सोच सकती हो कि यहाँ का सुरम्य वातावरण और चारों तरफ प्रेमी जोडों की अठखेलियां देखकर मेरे ऊपर क्या बीतती होगी . पहाड़ों पर उड़ने वाले श्वेत श्याम बादलों को देखकर कभी कभी मन में यह भावना जागृत होती है कि काश मैं इन्हीं बादलों पर सवार होकर क्षण भर में तुम्हारे पास पहुँच जाता |अथवा फिर महा कवि कालिदास के मेघ दूतं की तरह इन बादलों के द्वारा अपनी प्रियतम के पास कोई सन्देशा ही भेज देता |परन्तु हाय रे भाग्य ! मेरे लिए तो यह भी संभव नहीं है |ह्रदय में भाव तो झंकृत होते हैं किन्तु उन्हें वाणी नहीं मिलती | हाँ , कभी कभी इन भावों को आंसुओं का अवलम्बन अवश्य मिल जाता है |तुम्हारी कुशलता का समाचार ह्रदय को सम्बल देता है |
प्रिय , कुछ ही दिनों में मुझे चन्द दिनों की छुट्टी मिलने वाली है |मैं उस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहा हूँ जब विरह की यह वेदना ख़त्म होगी और तुम्हारे चन्द्र मुख़ के दर्शन का आनंद मिलेगा |इसी सुखद घड़ी की प्रतीक्षा में ......

                                                                                                     तुम्हारा ही

Friday 17 March 2017

मुठ्ठी में रेत

मुट्ठी में रेत की तरह फिसलती जा रही है जिन्दगी.
ख्वाब बहुत देखे, कुछ सच्चे कुछ झूठे.
कुछ ख्वाब हकीकत बने, कुछ हकीकत अफसाने.
कुछ ख्वाब ख्वाब ही रहे. कुछ ख्वाब हवा हो गए. मगर उनकी खुश्बू फ़ीजा में बाकी रही.
अब तो ख्वाब देखने से भी कतरा रही है जिन्दगी.
मुट्ठी में रेत की तरह फिसल जा रही है जिन्दगी.
रिश्ते बहुत बने. कुछ बन गए, कुछ बनाये.
कुछ निभ गए, कुछ निभाये गये.
कुछ टूट गए, फिर जुट भी गए.
कुछ जुटे भी तो बारीक निशां बाकी रहा.
कुछ ऐसे भी रिश्ते हैं जो अनकहे हैं, अबूझ हैं.
कुछ रिश्ते उनसे जो अब इस फानी दुनिया से दूर जा चुके
मगर इनकी खुश्बू हवाओं में जिन्दा है.
‌अब तो रिश्ते बनाने से भी कतरा रही है जिन्दगी.
मुट्ठी में रेत की तरह फिसल जा रही है जिन्दगी. .
काम बहुत किए, कुछ सही कुछ गलत
कुछ स्वयं किए, कुछ करवाए गए
कुछ से खुशी मिली, कुछ से पश्चाताप हुआ
कुछ कर्मो से मन की तृप्ति मिली, कुछ से आत्मा की
कर्म और भाग्य के भंवर में फंसकर
डूबती उतराती जा रही है जिन्दगी
मुट्ठी में रेत की तरह फिसलती जा रही है जिन्दगी.
प्यार मिला भी, प्यार किया भी
कुछ प्यार सच्चे थे कुछ झूठे
कुछ प्यार सपने ही रहे
कुछ सपने प्यारे लगे
कुछ ने दर्द दिए, कुछ ने दर्द बांटे
प्यार और दर्द की परतों में
फंसती निकलती जा रही है जिन्दगी
हर रोज नया फलसफा सिखा रही है जिन्दगी
मुट्ठी में रेत की तरह फिसलती जा रही है जिन्दगी.
राज कुमार