Monday, 28 October 2019

'पोर पोर' पर


मनुष्य के शरीर पर जो लघु और कोमल बाल होते हैं उन्हें ही रोम या रोआं कहा जाता है. इन रोम की संख्या असंख्य होती है.इंसानों के अलावा जानवरों में भी रोम होते हैं. जीव वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो रोम का जीवों के शरीर के लिए बड़ा महत्त्व है. शारीरिक तापमान के नियंत्रण के लिए ये बड़ा काम आता है. इन रोमों की जड़ में अत्यंत लघु रोम छिद्र होते हैं जो पसीना छोड़कर तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं.देखा जाय तो यह त्वचा के लिए एक सुरक्षा कवच का काम करता है. अपने देखा होगा कि जब अत्यधिक ठण्ड पड़ती है तो शरीर के रोयें खड़े हो जाते हैं.और ऐसा प्रायः सभी जीवों के साथ होता है.ऐसा करके शरीर अपने को ठण्ड से बचाता है.शरीर के रोयें अत्यधिक संवेदनशील होते हैं.किसी के शरीर पर कम तो किसी के ज्यादा रोयें होते हैं. शरीर के रोयें मानसिक दशा से भी बहुत प्रभावित होते हैं.भय, तनाव या रोमांच  की दशा में रोयें खड़े हो जाते हैं.
शरीर के रोम या कहे ‘रोम रोम’ शब्द का कवियों और साहित्यकारों के लिए बड़ा महत्व है.उसी तरह धार्मिक व्यक्तिओं और विद्वानों द्वारा भी इस शब्द का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है. प्रेम या भक्ति की पराकाष्टा दिखाने वाले ये जताते हैं मIनो ईश्वर उनके रोम रोम में बसा हुआ है या वे किसी को रोम रोम से प्रेम करते हैं.उदहारण के लिए,तुलसीदास जी ने बाल कांड में लिखा है :-
"ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै 
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर रहै

पुनः एक भजन में कहा गया है " हे रोम रोम में बसने वाले राम ..."
एक भजन में कहा गया है - " रोम रोम पुलकित हो उठता है जिसके पावन नाम से ....."

कवि महेंद्र भटनागर अपनी कविता " कचनार " में लिखते हैं :-
“पहली बार
मेरे द्वार
कुछ ऐसा झूमा कचनार
रोम-रोम से जैसे उमड़ा प्यार!
अनगिन इच्छाओं का संसार!
पहली बार
ऐसा अद्भुत उपहार! ”
कवि अजंता शर्मा ने अपनी कविता मल्हार में लिखा है :-
“अचानक
किसी बसंती सुबह
तुम गरज बरस
मुझे खींच लेते हो
अंगना में .
मैं तुममें
***********
************
मेरा रोम रोम
तुम चूमते हो असंख्य बार .
अपने आलिंगन में
भिगो देते हो
मेरा पोर पोर.
मेरी अलसाई पलकों पर
शीत बन पसर जाते हो…”

कवि ज्योति के शब्द देखें :-
“मेरे
रोम रोम
पीर बहती रही।
मन की तलहटी जरखेज़
होती रही।।
पोर पोर कविता
उतरती रही ,
मर मर
मैं जीती रही
घास
सी ढीठ थी ,
उखाड़ी गई बारंबार
फिर फिर मैं
उगती रही।
मेरे रोम रोम
पीर बहती रही।
मेरे पोर पोर कविता उगती रही ।।“

एक और मिलता जुलता शब्द है :- पोर पोर .इस शब्द का प्रयोग भी हिंदी साहित्य में खूब हुआ है.जैसे विमल राजस्थानी की ये पंक्तियाँ देखिये :-

“टूट रहा है अंग-अंग रे पोर-पोर दुखती थकान से
पथ का कोई छोर दीखे
नभ-नयनों की कोर दीखे
निशि द्रुपदा के चीर-हरण-सी
अमर सुहासी भोर दीखे
मन ऊबा इस सन्नाटे से, साँय-साँय सुनसान से
पोर-पोर दुखती थकान से”

कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेम या भक्ति या भावनाओं कि गहनता को प्रकट करने के लिएरोम रोम” शब्द का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है और इसलिए ये शब्द सिर्फ एक जीव वैज्ञानिक अवधारणा का द्योतक ही नहीं है अपितु एक साहित्यिक अवधारणा का भी द्योतक है.

 द्वारा                राज कुमार

Monday, 7 January 2019

नया साल

काल नया, साल नया
जीवन शृंगार नया।
प्रीत नई, गीत नया,
दृष्टि नयी, स्वप्न नया।

जीवन की बगिया में,
खुश्बू नई, फूल नया।

रिश्तों की डोर नई,
मन का उत्साह नया।
नई ऊर्जा, संकल्प नये,
भाव नये, बोल नया।

कर्म नया, भाग्य नया।
जीवन का मार्ग नया,
नया विहान लाया है,
आया है साल नया।।
-- राज कुमार

Monday, 20 August 2018

केरल के सबक


               संदर्भ :केरल की आपदा
आदमी प्रकृति के कोहराम से परेशान है. मगर क्या किसी ने सोचा है कि प्रकृति भी आदमी के कोहराम से परेशान है. नदियों के रास्तों में वैध अवैध बिल्डिंग्स बनती गई. उनके डूब क्षेत्र में हवाई अड्डे और बड़े बड़े निर्माण बना दिए गए. नदियों पर अनावश्यक बांध बनाकर उनके प्रवाह को अवरुध्द किया गया. बारिश के पानी के निकलने वाले रास्तों को अवरुद्ध कर दिया गया।जंगलों को निर्ममता से काटा गया. उसका नतीजा सबके सामने है. जब अति हो गयी तो प्रकृति ने भी अपना रोद्र रूप दिखाया मानो वह अपने रास्तों में खड़े किए गए अवरोधों को ध्वस्त करना चाहती हो. दुर्भाग्य से इस प्राकृतिक आपदा से भी मनुष्य कोई सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है. उत्तराखण्ड की त्रासदी से भी कुछ नहीं सीखा. वहां भी नदियों के रास्तों में अवैध निर्माण खड़े कर दिए गए थे पर बाढ़ में सारे बहा दिए गए. हमारे पुरखों ने पुराने जमाने में प्रकृति के शांत वातावरण में मंदिरों का निर्माण किया ताकि श्रद्धालु परमात्मा के साथ अपनी आत्मा का साक्षात्कार कर सके. पर आज इन तीर्थ स्थलों का भी व्यावसायीकरण हो चुका है और वे अनावश्यक निर्माण और भीड़ भाड़ से ग्रस्त हो चुके हैं. केदार नाथ की त्रासदी से क्या कोई सबक सीखा जा सका. लगता तो नहीं है. लेकिन मनुष्य को यह याद रखना चाहिए कि अगर वह प्रकृति के रास्ते में आएगा तो प्रकृति भी समय समय पर अपने रास्ते में आने वाले अवरोधों को ध्वस्त करते रहेगी और यह ध्वंस एक चेतावनी के रूप में सामने आएगा.
द्वारा राज कुमार 

Thursday, 9 November 2017

          तो कोइ बात बने
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मुकद्दर बदलने की बात करते हो
मुल्क की तक़दीर सवारने की बात करते हो
छोड़कर महलों की रंगीनियत औ ऐशो आराम,
पथरीली राहों पर कुछ कदम बढ़ाओ
तो कोइ बात बने.
माना कि हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा है
और तुम रोशनी फैलाने की बात करते हो
किसी अंधेरे कोने में एक दीपक ही सही
ख़ुद से जलाओ तो कोइ बात बने.
हर तरफ दर्द है, बेरुखी है, मगरूरी है
और तुम रूह की पाकिजगी की बात करते हो
तुम खुद मुस्कुराओ तो क्या यह काफ़ी है?
किसी गरीब के चेहरे पे हंसी लाओ
तो कोइ बात बने.
दुनिया बदलने की बात करते हो
आसमान में सुराख करने की बात करते हो
भरकर मन में विश्वास और फौलादी जज्बा
एक पत्थर तबीयत से उछालो तो कोइ बात बने.
द्वारा राज कुमार 

Tuesday, 18 July 2017

प्याज तू रुलाता नहीं है

अथह प्याज कथा (जब  प्याज सस्ता था)

प्याज अब तू रुलाता नहीं है
30/- के ऊपर तू जाता नहीं है
'मोदी राज 'में तू सताता नहीं है
न्यूज चैनलों पर तू आता नहीं है
केजरी को नहीं देता तू कोई मुद्दा
राहुल के भी तू काम आता नहीं है
तुम्हारा 'सस्ता' अंदाज भाता नहीं है
तुम्हारा सुर्ख गुलाबी रूप अब लुभाता नहीं है
भाव खाती है हरेक सब्जी कभी न कभी
एक तू ही अपना रौद्र रूप दिखाता नहीं है
गरीब हो या अमीर, किसी को तरसाता नहीं है
'बुरे दिनों 'की याद दिलाता नहीं है
प्याज अब तू रुलाता नहीं है। 

आँगन का घड़ा



बहुत पहले की बात है जब हम छोटे थे. हमारे घर के बीचोंबीच एक बड़ा सा आंगन था. आँगन के चारों तरफ बरामदा था. एक तरफ कोने में अनाज पीसने  की चक्की होती थी. आँगन के पूरब तरफ के बरामदे में एक ताम्बे का घड़ा रखा रहता था. रोज सुबह उस घड़े में चापाकल का ठंडा और ताजा पानी भर दिया जाता था. उस समय एकमात्र चापाकल घर के पिछवाड़े में होता था. जाहिर है कि चापाकल तक पहुंचने के लिए कुछ दूरी तय करना पड़ता था. आँगन में रोज घड़े में पानी रखने का मकसद था कि घर के लोगों को खासकर बच्चों को बिना चापाकल के पास गए आँगन में ही पानी का स्रोत उपलब्ध कराना. हम बच्चे स्कूल के अलावा खाली समय में घर के आसपास मुहल्ले में ही दोस्तों के साथ खेलने कूदने में व्यस्त रहते थे. बीच बीच में जब प्यास लगती थी तो दौड़ कर उस तांबे के घड़े के पास जाते थे और चुल्लू के सहारे अपनी प्यास बुझाते थे. शायद वहाँ गिलास भी रहता होगा. लेकिन हम शायद ही उसका इस्तेमाल करते थे. रात में तो उस घड़े का महत्व और भी ज्यादा हो जाता था।रात में जब भी प्यास लगती थी तो वह तांबे का घड़ा ही हमारी प्यास बुझाने का एकमात्र जरिया होता था. हमारे घर के पिछवाड़े में एक छोटी सी बाड़ी होती थी जहां तरह तरह के पेड़ पोधे लगे हुए थे. वहीं पर चापाकल भी था तथा घर का शौचालय भी. रात में वहां अंधेरा होता था और घर के बच्चे या औरतें वहाँ जाने से डरते थे. कई सालों बाद आँगन में भी एक चापाकल लग गया. फिर धीरे धीरे तांबे के उस घड़े का महत्व कम होता गया. मुझे याद भी नहीं कि वह घड़ा वहां से कब विलोपित हो गया और कहां गया. अब तो स्मृतियों में उसकी याद ही बाकी है. कहना न होगा कि उस घड़े के पानी में जो शीतलता और मिठास हमें मिलती थी वह अन्यत्र दुर्लभ थी. 

Thursday, 23 March 2017

एक रसोइए का अपनी पत्नी के नाम पत्र

प्रिय,
बहुत बहुत याद !
कैसी हो? यह पूछना शायद बेमानी लगे फिर भी पूछ लेता हूँ.शायद इस प्रश्न के उत्तर में तुम्हे भाव प्रवाह का अवसर मिले.अपनी सुप्त अथवा उद्दीप्त कामनाओं को प्रकट करने का मार्ग मिले. विरह की वेदना कैसे व्यथित कर रही है ,इसे जानने का अवसर मिल सके .अथवा उस असीम धैर्य का परिचय मिल सके जिसके द्वारा तुम अपने अकेलेपन की पीड़ा को न सिर्फ सहन कर रही हो बल्कि अपनी जिम्मेवारिओं का भी अच्छी तरह निर्वहन कर रही हो.
रहा मेरा प्रश्न .मैं भी तो यहाँ अपनी जिम्मेवारियों के निर्वहन में ही लगा हुआ हूँ .अपने घर और गांव से सुदूर इस हिल स्टेशन के एक होटल में मुझे रसोइये का जो काम मिला हुआ है,उसको पूरी तन्मयता से करने की कोशिश कर रहा हूँ ,ताकि अपने परिवार का बोझ उठा सकूँ .यहाँ का मौसम बहुत ही सुहावना है .दूर दूर से लोग यहाँ छुट्टियां मनाने आते हैं .यहाँ के सुहाने और प्राकृतिक दृश्यों के बीच प्यार की भावना और भी पल्लवित और पुष्पित होती है .परन्तु मेरे भाग्य में तो विरह की आग में दग्ध होना ही लिखा है . यहाँ आने वाले पर्यटक मेरे बनाये खाने की तारीफ करते हैं .किन्तु मुझे तो तुम्हारे हाथों की बनाई हुई नरम मुलायम रोटियों की याद आती है . प्रिय कभी कभी मैं सोचता हूँ कि चूल्हे की आग से ज्यादा क्या विरह की आग दग्ध करती है ? तुम तो सोच सकती हो कि यहाँ का सुरम्य वातावरण और चारों तरफ प्रेमी जोडों की अठखेलियां देखकर मेरे ऊपर क्या बीतती होगी . पहाड़ों पर उड़ने वाले श्वेत श्याम बादलों को देखकर कभी कभी मन में यह भावना जागृत होती है कि काश मैं इन्हीं बादलों पर सवार होकर क्षण भर में तुम्हारे पास पहुँच जाता |अथवा फिर महा कवि कालिदास के मेघ दूतं की तरह इन बादलों के द्वारा अपनी प्रियतम के पास कोई सन्देशा ही भेज देता |परन्तु हाय रे भाग्य ! मेरे लिए तो यह भी संभव नहीं है |ह्रदय में भाव तो झंकृत होते हैं किन्तु उन्हें वाणी नहीं मिलती | हाँ , कभी कभी इन भावों को आंसुओं का अवलम्बन अवश्य मिल जाता है |तुम्हारी कुशलता का समाचार ह्रदय को सम्बल देता है |
प्रिय , कुछ ही दिनों में मुझे चन्द दिनों की छुट्टी मिलने वाली है |मैं उस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहा हूँ जब विरह की यह वेदना ख़त्म होगी और तुम्हारे चन्द्र मुख़ के दर्शन का आनंद मिलेगा |इसी सुखद घड़ी की प्रतीक्षा में ......

                                                                                                     तुम्हारा ही