Thursday 27 April 2023

जेठालाल की 'दया'



दया अब शायद कभी नहीं आएगी। दया जेठालाल से रूठ कर कहीं दूर चली गई है शायद हमेशा के लिए। उसके ना होने से केवल गडा परिवार में ही सूनापन नहीं है बल्कि सारे गोकुलधाम सोसायटी में सूनापन है।हर गोकुलधाम वासी दया को मिस कर रहा है। दया के चर्चे होते हैं, उसकी बातें होती हैं मगर दया  कब आएगी किसी को नहीं पता। दर्शकों को भी यह सूनापन महसूस होता है।

दया की याद सभी को आती है ।इसमें कोई संदेह नहीं कि 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' की मुख्य कहानी और घटनाएं गडा  परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है । गदा परिवार के बीच होने वाली घटनाएं जिसमें मुख्य किरदार जेठा और दया होते हैं ,मुख्य रूप से उन्हीं से हास्य की सृष्टि होती है ।दया का किरदार विशिष्ट रूप में गढ़ा गया है जो स्वतः स्फूर्त हास्य पैदा करता है। वह हमेशा पारंपरिक गुजराती तरीके से सीधे आंचल की शादी में एक आज्ञाकारी बहू के रूप में सामने आती है जिसे बापूजी का भरपूर स्नेह और समर्थन मिलता है।

दया के बोलने का एक अलग अंदाज है जो हंसी उत्पन्न करने में मदद करता है ।मगर सबसे बढ़कर मजेदार है उसके हंसने का तरीका। गरदन उचकाकर जोर-जोर से ही ही कर हंसना है उसकी खासियत है। दया का एक और अनोखा अंदाज है और वह है दोनों कानों पर हाथ रखकर ’हे मां माताजी’ कहना।  उसकी कमर में लटकने वाला चाबियों का गुच्छा इस बात का संकेत देता है कि सारी जिम्मेदारियों को वह अच्छी तरह संभालती है।

आमतौर पर जेठालाल से वह पंगा नहीं लेती है और ज्यादातर उसकी डांट फटकार को सह जाती है। जेठालाल उसे प्यार तो करता है किंतु उसकी नजर में वह कोई ज्यादा होशियार नहीं है ।कई बार दया की हरकतों को वह ’नॉनसेंस’ की उपाधि दे चुका है ।मगर जब बापू जी द्वारा जेठिया की खबर ली जाती है तब दया को खूब आनंद आता है खासकर  जेठा के बचपन की कार गुजारिया सुनकर।

दुकान जाते समय जेठालाल को पीछे से टोकना दया के रूटीन में शामिल है जो जेठालाल को बिल्कुल पसंद नहीं क्योंकि उस समय पड़ोसियों के सामने उसकी पोल खुल जाती है। सच पूछा जाए तो जेठालाल और दया के बीच होने वाली नोकझोंक इस धारावाहिक के सबसे मनोरंजक दृश्यों में से एक है चाहे वह घर के अंदर हो या घर के बाहर।

दया एक कुशल गृहिणी ही नहीं एक अच्छी कुक भी है। खासकर गुजराती व्यंजन बनाने में उसका जवाब नहीं और इस मामले में जेठा हमेशा उसकी तारीफों के पुल बांधा करता है ।सोसाइटी के दूसरे लोग दया के बनाए हुए जलेबी फाफड़े के बड़े प्रशंसक हैं। टप्पू को वह बहुत प्यार करती है और उसकी शैतानियां को नजरअंदाज कर देती है।

ऐसा नहीं है कि जेठालाल और दया के बीच कभी टकराव नहीं होता है मगर ज्यादातर मौकों पर बापूजी बीच में आ जाते हैं और बात आगे नहीं बढ़ पाती है। मगर एक अवसर पर बात काफी आगे बढ़ गई और दया ने मौन धारण कर ना बोलने की कसम खा ली। फिर काफी मान मनौवल के बाद दया ने अपना मौन व्रत तोड़ा।

दया को गुजराती डांडिया डांस खूब पसंद है और जब भी मौका मिलता है वह इसका प्रदर्शन करने से नहीं चूकती है ।अपनी मां से फोन पर लंबी बातें करने का उसको शौक है और उस बातचीत में जेठालाल के नए-नए नामकरण कर के दोनो खूब मजे लेती हैं जबकि जेठालाल को अपनी सास के नाम से ही चिढ़ है। दया का एक भाई भी है जिसकी वह खूब तारीफ करती है और उसकी गलतियों को नजरअंदाज कर देती है जबकि जेठालाल को वह फूटी आंख भी नहीं सुहाता है।

तो ऐसी नटखट और बहुरंगी दया के चले जाने के बाद धारावाहिक में एक सूनापन तो आ ही गया है मगर दया का स्थान लेना बहुत मुश्किल है। इसलिए सभी के पास एक लंबा इंतजार करने के अलावा कोई रास्ता नहीं।


द्वारा राज कुमार 


Saturday 1 April 2023

सिनेमा की दुनिया



सेलूलोइड की दुनिया हमेशा से हमें आकर्षित करती रही है। बचपन से ही इसके प्रति हमारा आकर्षण स्थापित हो गया था। उस समय हम स्कूल में पढ़ते थे। हमारे छोटे से शहर में इक पुराना सा सिनेमा हाल था। मुझे याद नहीं कि पहली बार मैं सिनेमा हाल कब गया था। मगर जिस पहली फिल्म की याद है वह एक धार्मिक फिल्म थी संत ज्ञानेश्वर। उस फिल्म में एक से बढ़कर एक चमत्कार दिखाए गए थे जो मुझ जैसे छोटे बच्चे को अभिभूत करने के लिए काफी थे। दूसरी यादगार फिल्म थी कृष्ण लीला। बाल कृष्ण की मनमोहक अदाओं ने मुझे फिर से अभिभूत कर दिया। 

कहना नहीं होगा कि जैसे जैसे हम बड़े होते गए,सिनेमा हमारे मन मस्तिष्क पर हावी होता गया। अक्सर दोस्तों के साथ हम अपने कस्बे के पुराने से सिनेमा हाल में पहुंच जाते थे। सिनेमा की दुनिया ही अलग थी। अंधेरे में बड़े पर्दे पर दौड़ती भागती तस्वीरें और संगीत मय बुलंद आवाज एक तिलिस्मी दुनिया की रचना करती थी। प्रोजेक्टर रूम से निकल कर परदे पर आती हुई रंग बिरंगी रोशनी एक अलग कौतूहल पैदा करती थी।कई बार कौतूहल वश हम प्रोजेक्टर रूम में भी चले जाते थे। सिनेमा का रील और घूमता हुआ प्रोजेक्टर मानों हमारे लिए एक अजूबा थे।

कभी कभी नई फिल्म लगने पर सिनेमा हाल का एक कर्मचारी जो शायद पेंटर भी था, वह हाल के सामने वाली बाहरी दीवार पर फिल्म के कलाकारों का ब्रश पेंट के द्वारा पोस्टर बनाता था। इसमें कई घंटे लगते थे। कभी कभी मैं इस प्रक्रिया को ध्यान से देखा करता था और पेंटिंग की बारीकियां सीखने की कोशिश करता था।

एक छोटे बच्चे के रुप में सिनेमा के प्रति हमारी समझ बहुत सीमित थी। ज्यादा तर हमें मार धाड़ और कॉमेडी वाले सीन ही पसन्द आते थे तथा गंभीर और संवेदनशील दृश्य बोरींग लगते थे। उस समय मैं किताबें खूब पढ़ता था और मनोरंजन के लिए रेडियो भी खूब सुनता था। नतीजा ये हुआ कि दो तीन सालों में ही सिनेमा के प्रति मेरी समझ बढ़ती गई। अब हम क्लासिक सिनेमा भी देखने और उसका आनन्द लेने लगे। उदाहरण के तौर पर उस वक्त हमने  'साहेब बीवी और गुलाम' 'गूंज उठी शहनाई' और 'गाइड' जैसी क्लासिकल फिल्में भी देखी और उनकी सराहना की जबकि उस समय  हमारी उम्र ज्यादा नहीं थी। कॉलेज के वक्त तक हम लगभग सभी पुरानी क्लासिकल फिल्मों का आनंद उठा चुके थे।

यह वो दौर था जब श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने एक नई तरह की सिनेमा की शुरुआत की जिसमें बड़े बड़े स्टार तो नहीं थे लेकिन उभरते हुए बेहतरीन कलाकार और वास्तविकता को पेश करती कहानियां थी और अच्छे सिनेमा की खोज में हम जैसे लोग इस न्यू वेब सिनेमा या पेरलेल सिनेमा की तरफ आकर्षित हुए।

उस जमाने में जब कभी कोइ नयी हिट फिल्म लगती थी तो टिकट खिड़की से टिकट लेना भी एक युद्ध जीतने जैसा था। लंबी लंबी कतारें लगती थी। जब तक पीछे वाले का नंबर आता था, हाउस फुल का बोर्ड लग जाता था।फिर सिनेमा के कर्मचारी टिकटें ब्लैक करना शुरू कर देते थे। जहां तक मुझे याद है उस समय टिकटों का मूल्य 50 पैसे से भी कम होता था जो बाद में धीरे धीरे बढ़ता गया।

उस समय सिनेमा देखते समय सिनेमा हाल की गुणवत्ता पर शायद ही किसी का ध्यान रहता था। पिक्चर क्वालिटी या साउंड क्वालिटी बहुत अच्छे तो नहीं होते थे मगर दूसरा कोइ विकल्प नहीं होने से लोग उस पर ध्यान नहीं देते थे।

बाद में जब कॉलेज की पढ़ाई के लिए बड़े शहरों में जाना हुआ तब वहां के अच्छे सिनेमा हॉल में फिल्में देखने का मौका मिला। उस समय बड़े शहरों के सिनेमा हॉल के बाहर बड़े बड़े पोस्टर लगाने का रिवाज था और इन पोस्टरों को स्थानीय पेंटरों से बनवाया जाता था।

सिनेमा हॉल पर सबसे पहला प्रहार टीवी ने किया और नतीजा ये हुआ कि छोटे कस्बों में सिनेमा के दर्शक कम होने लगे।अब पहले जैसी भीड़ नहीं होती थी। सिनेमा हॉल की आर्थिक हालत खस्ता होने लगी जिसका असर सिनेमा हॉल की गुणवत्ता पर भी पड़ा।

पिछले कुछ सालों में मॉल कल्चर के आने के बाद सिनेमा का रुप ही बदल गया है। सिनेमा डिजिटल हो गया है। रील वाली पुरानी टेक्नोलॉजी बंद हो गई है। अच्छे एयर कंडीशंड वातावरण में बैठ कर फिल्म देखने का अलग अनुभव होता है।मगर वहां पुराने सिनेमा हाल की तरह शोर मचाना और सिटी बजाना नहीं होता है। फिर नए सिनेमा हॉल की सुविधाओं की कीमत भी चुकानी पड़ती है जो हर आम जन की पहुंच में नहीं होती। पुराने सिनेमा हॉल धीरे धीरे बंद होते जा रहे हैं। कुछ अभी भी अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

कहना नहीं होगा कि सिनेमा ने एक लंबा रास्ता तय किया है। मगर अभी भी सिनेमा देखने का पुराना अनुभव हमारे मन मस्तिष्क के किसी कोने में एक सुनहरी याद के रुप में बैठा हुआ है।