Thursday 27 April 2023

जेठालाल की 'दया'



दया अब शायद कभी नहीं आएगी। दया जेठालाल से रूठ कर कहीं दूर चली गई है शायद हमेशा के लिए। उसके ना होने से केवल गडा परिवार में ही सूनापन नहीं है बल्कि सारे गोकुलधाम सोसायटी में सूनापन है।हर गोकुलधाम वासी दया को मिस कर रहा है। दया के चर्चे होते हैं, उसकी बातें होती हैं मगर दया  कब आएगी किसी को नहीं पता। दर्शकों को भी यह सूनापन महसूस होता है।

दया की याद सभी को आती है ।इसमें कोई संदेह नहीं कि 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' की मुख्य कहानी और घटनाएं गडा  परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है । गदा परिवार के बीच होने वाली घटनाएं जिसमें मुख्य किरदार जेठा और दया होते हैं ,मुख्य रूप से उन्हीं से हास्य की सृष्टि होती है ।दया का किरदार विशिष्ट रूप में गढ़ा गया है जो स्वतः स्फूर्त हास्य पैदा करता है। वह हमेशा पारंपरिक गुजराती तरीके से सीधे आंचल की शादी में एक आज्ञाकारी बहू के रूप में सामने आती है जिसे बापूजी का भरपूर स्नेह और समर्थन मिलता है।

दया के बोलने का एक अलग अंदाज है जो हंसी उत्पन्न करने में मदद करता है ।मगर सबसे बढ़कर मजेदार है उसके हंसने का तरीका। गरदन उचकाकर जोर-जोर से ही ही कर हंसना है उसकी खासियत है। दया का एक और अनोखा अंदाज है और वह है दोनों कानों पर हाथ रखकर ’हे मां माताजी’ कहना।  उसकी कमर में लटकने वाला चाबियों का गुच्छा इस बात का संकेत देता है कि सारी जिम्मेदारियों को वह अच्छी तरह संभालती है।

आमतौर पर जेठालाल से वह पंगा नहीं लेती है और ज्यादातर उसकी डांट फटकार को सह जाती है। जेठालाल उसे प्यार तो करता है किंतु उसकी नजर में वह कोई ज्यादा होशियार नहीं है ।कई बार दया की हरकतों को वह ’नॉनसेंस’ की उपाधि दे चुका है ।मगर जब बापू जी द्वारा जेठिया की खबर ली जाती है तब दया को खूब आनंद आता है खासकर  जेठा के बचपन की कार गुजारिया सुनकर।

दुकान जाते समय जेठालाल को पीछे से टोकना दया के रूटीन में शामिल है जो जेठालाल को बिल्कुल पसंद नहीं क्योंकि उस समय पड़ोसियों के सामने उसकी पोल खुल जाती है। सच पूछा जाए तो जेठालाल और दया के बीच होने वाली नोकझोंक इस धारावाहिक के सबसे मनोरंजक दृश्यों में से एक है चाहे वह घर के अंदर हो या घर के बाहर।

दया एक कुशल गृहिणी ही नहीं एक अच्छी कुक भी है। खासकर गुजराती व्यंजन बनाने में उसका जवाब नहीं और इस मामले में जेठा हमेशा उसकी तारीफों के पुल बांधा करता है ।सोसाइटी के दूसरे लोग दया के बनाए हुए जलेबी फाफड़े के बड़े प्रशंसक हैं। टप्पू को वह बहुत प्यार करती है और उसकी शैतानियां को नजरअंदाज कर देती है।

ऐसा नहीं है कि जेठालाल और दया के बीच कभी टकराव नहीं होता है मगर ज्यादातर मौकों पर बापूजी बीच में आ जाते हैं और बात आगे नहीं बढ़ पाती है। मगर एक अवसर पर बात काफी आगे बढ़ गई और दया ने मौन धारण कर ना बोलने की कसम खा ली। फिर काफी मान मनौवल के बाद दया ने अपना मौन व्रत तोड़ा।

दया को गुजराती डांडिया डांस खूब पसंद है और जब भी मौका मिलता है वह इसका प्रदर्शन करने से नहीं चूकती है ।अपनी मां से फोन पर लंबी बातें करने का उसको शौक है और उस बातचीत में जेठालाल के नए-नए नामकरण कर के दोनो खूब मजे लेती हैं जबकि जेठालाल को अपनी सास के नाम से ही चिढ़ है। दया का एक भाई भी है जिसकी वह खूब तारीफ करती है और उसकी गलतियों को नजरअंदाज कर देती है जबकि जेठालाल को वह फूटी आंख भी नहीं सुहाता है।

तो ऐसी नटखट और बहुरंगी दया के चले जाने के बाद धारावाहिक में एक सूनापन तो आ ही गया है मगर दया का स्थान लेना बहुत मुश्किल है। इसलिए सभी के पास एक लंबा इंतजार करने के अलावा कोई रास्ता नहीं।


द्वारा राज कुमार 


Saturday 1 April 2023

सिनेमा की दुनिया



सेलूलोइड की दुनिया हमेशा से हमें आकर्षित करती रही है। बचपन से ही इसके प्रति हमारा आकर्षण स्थापित हो गया था। उस समय हम स्कूल में पढ़ते थे। हमारे छोटे से शहर में इक पुराना सा सिनेमा हाल था। मुझे याद नहीं कि पहली बार मैं सिनेमा हाल कब गया था। मगर जिस पहली फिल्म की याद है वह एक धार्मिक फिल्म थी संत ज्ञानेश्वर। उस फिल्म में एक से बढ़कर एक चमत्कार दिखाए गए थे जो मुझ जैसे छोटे बच्चे को अभिभूत करने के लिए काफी थे। दूसरी यादगार फिल्म थी कृष्ण लीला। बाल कृष्ण की मनमोहक अदाओं ने मुझे फिर से अभिभूत कर दिया। 

कहना नहीं होगा कि जैसे जैसे हम बड़े होते गए,सिनेमा हमारे मन मस्तिष्क पर हावी होता गया। अक्सर दोस्तों के साथ हम अपने कस्बे के पुराने से सिनेमा हाल में पहुंच जाते थे। सिनेमा की दुनिया ही अलग थी। अंधेरे में बड़े पर्दे पर दौड़ती भागती तस्वीरें और संगीत मय बुलंद आवाज एक तिलिस्मी दुनिया की रचना करती थी। प्रोजेक्टर रूम से निकल कर परदे पर आती हुई रंग बिरंगी रोशनी एक अलग कौतूहल पैदा करती थी।कई बार कौतूहल वश हम प्रोजेक्टर रूम में भी चले जाते थे। सिनेमा का रील और घूमता हुआ प्रोजेक्टर मानों हमारे लिए एक अजूबा थे।

कभी कभी नई फिल्म लगने पर सिनेमा हाल का एक कर्मचारी जो शायद पेंटर भी था, वह हाल के सामने वाली बाहरी दीवार पर फिल्म के कलाकारों का ब्रश पेंट के द्वारा पोस्टर बनाता था। इसमें कई घंटे लगते थे। कभी कभी मैं इस प्रक्रिया को ध्यान से देखा करता था और पेंटिंग की बारीकियां सीखने की कोशिश करता था।

एक छोटे बच्चे के रुप में सिनेमा के प्रति हमारी समझ बहुत सीमित थी। ज्यादा तर हमें मार धाड़ और कॉमेडी वाले सीन ही पसन्द आते थे तथा गंभीर और संवेदनशील दृश्य बोरींग लगते थे। उस समय मैं किताबें खूब पढ़ता था और मनोरंजन के लिए रेडियो भी खूब सुनता था। नतीजा ये हुआ कि दो तीन सालों में ही सिनेमा के प्रति मेरी समझ बढ़ती गई। अब हम क्लासिक सिनेमा भी देखने और उसका आनन्द लेने लगे। उदाहरण के तौर पर उस वक्त हमने  'साहेब बीवी और गुलाम' 'गूंज उठी शहनाई' और 'गाइड' जैसी क्लासिकल फिल्में भी देखी और उनकी सराहना की जबकि उस समय  हमारी उम्र ज्यादा नहीं थी। कॉलेज के वक्त तक हम लगभग सभी पुरानी क्लासिकल फिल्मों का आनंद उठा चुके थे।

यह वो दौर था जब श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने एक नई तरह की सिनेमा की शुरुआत की जिसमें बड़े बड़े स्टार तो नहीं थे लेकिन उभरते हुए बेहतरीन कलाकार और वास्तविकता को पेश करती कहानियां थी और अच्छे सिनेमा की खोज में हम जैसे लोग इस न्यू वेब सिनेमा या पेरलेल सिनेमा की तरफ आकर्षित हुए।

उस जमाने में जब कभी कोइ नयी हिट फिल्म लगती थी तो टिकट खिड़की से टिकट लेना भी एक युद्ध जीतने जैसा था। लंबी लंबी कतारें लगती थी। जब तक पीछे वाले का नंबर आता था, हाउस फुल का बोर्ड लग जाता था।फिर सिनेमा के कर्मचारी टिकटें ब्लैक करना शुरू कर देते थे। जहां तक मुझे याद है उस समय टिकटों का मूल्य 50 पैसे से भी कम होता था जो बाद में धीरे धीरे बढ़ता गया।

उस समय सिनेमा देखते समय सिनेमा हाल की गुणवत्ता पर शायद ही किसी का ध्यान रहता था। पिक्चर क्वालिटी या साउंड क्वालिटी बहुत अच्छे तो नहीं होते थे मगर दूसरा कोइ विकल्प नहीं होने से लोग उस पर ध्यान नहीं देते थे।

बाद में जब कॉलेज की पढ़ाई के लिए बड़े शहरों में जाना हुआ तब वहां के अच्छे सिनेमा हॉल में फिल्में देखने का मौका मिला। उस समय बड़े शहरों के सिनेमा हॉल के बाहर बड़े बड़े पोस्टर लगाने का रिवाज था और इन पोस्टरों को स्थानीय पेंटरों से बनवाया जाता था।

सिनेमा हॉल पर सबसे पहला प्रहार टीवी ने किया और नतीजा ये हुआ कि छोटे कस्बों में सिनेमा के दर्शक कम होने लगे।अब पहले जैसी भीड़ नहीं होती थी। सिनेमा हॉल की आर्थिक हालत खस्ता होने लगी जिसका असर सिनेमा हॉल की गुणवत्ता पर भी पड़ा।

पिछले कुछ सालों में मॉल कल्चर के आने के बाद सिनेमा का रुप ही बदल गया है। सिनेमा डिजिटल हो गया है। रील वाली पुरानी टेक्नोलॉजी बंद हो गई है। अच्छे एयर कंडीशंड वातावरण में बैठ कर फिल्म देखने का अलग अनुभव होता है।मगर वहां पुराने सिनेमा हाल की तरह शोर मचाना और सिटी बजाना नहीं होता है। फिर नए सिनेमा हॉल की सुविधाओं की कीमत भी चुकानी पड़ती है जो हर आम जन की पहुंच में नहीं होती। पुराने सिनेमा हॉल धीरे धीरे बंद होते जा रहे हैं। कुछ अभी भी अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

कहना नहीं होगा कि सिनेमा ने एक लंबा रास्ता तय किया है। मगर अभी भी सिनेमा देखने का पुराना अनुभव हमारे मन मस्तिष्क के किसी कोने में एक सुनहरी याद के रुप में बैठा हुआ है।

Saturday 5 November 2022

आध्यात्मिकता की ओर......

 



आध्यात्मिकता क्या है? पूजा पाठ एवं सामान्य धार्मिक आचरण से यह किस प्रकार भिन्न है? हम आध्यात्मिक कैसे हो सकते हैं? इससे फायदे क्या हैं और क्यों हमें आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने का प्रयास करना चाहिए? इन सभी प्रश्नों पर मैं विचार करता रहा हूं और अपने इतने वर्षों के अनुभव, अनुभूति और चिन्तन के आधार पर मै यहां इनका उत्तर ढूंढने का प्रयास करूंगा। 

देखा जाए तो हम सब  जीवन का मुख्य उद्देश्य खुशी या आनन्द की प्राप्ति मानते हैं और हमारा जो भी कार्य व्यापार है वह इसी उद्देश्य के इर्द गिर्द घूमता है। ये आनन्द हमें कहां से मिल सकता है? क्या सांसारिक वस्तुओं या व्यक्तियों से? दुर्भाग्य से ज्यादातर लोगों की यही सोच है। लोग सांसारिक वस्तुओं या व्यक्तियों को प्राप्त करने और उसी में अपनी खुशी ढूंढने में लगे रहते हैं। मगर यह तो सत्य है न कि सांसारिक वस्तुएं क्षणभंगुर होती हैं। तो फिर उन पर टिकी हुईं खुशियां कितनी देर तक साथ देंगी?

तो क्या इन्हें मोह माया का बंधन समझ कर सर्वथा त्याग देना चाहिए? मेरे विचार से इसकी जरूरत नहीं है। हमें सांसारिक वस्तुओं या व्यक्तियों का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि अपना नजरिया बदलने की आश्यकता है। हमें अपनी सोच और जीवन पद्धति बदलनी होगी और यह सोच और जीवन पद्धति होगी आध्यात्मिकता से ओत प्रोत।

पूजा पाठ से यह किस प्रकार भिन्न है? मेरा मानना है कि पूजा पाठ और धार्मिक आचरण का भी अंतिम उद्देश्य मनुष्य में आध्यात्मिकता जगाना ही होता है जिसके द्वारा सच्चे आनन्द की प्राप्ति की जा सकती है।

प्रश्न है कि आध्यात्मिकता की प्राप्ति कैसे की जा सकती है? इसका पहला चरण होगा अपने मन और आत्मा को निर्मल और शांत करना क्योंकि आध्यात्मिकता के वाहक मन और आत्मा ही है। सबसे पहले मनुष्य जनित बुराइयों को इनसे हटाना होगा जैसे क्रोध, लोभ, भय, घृणा, ईर्ष्या, अहम आदि। मन और आत्मा जैसे जैसे पवित्र और शांत होती जाएगी वैसे वैसे आध्यात्मिकता को जगाने में आसानी होगी। पूजा पाठ एवं धार्मिक आचरण का उद्देश्य भी सच पूछा जाए तो मन और आत्मा को निर्मल और शांत करना ही होता है जिससे हम और आगे के जीवन उद्देश्य की ओर बढ़ सकें।

क्या बिना आध्यात्मिकता के हम जीवन में सुखी और खुश नहीं रह सकते? 

हमारा जीवन बड़ा ही उलझा हुआ है। यह सिर्फ वस्तुओं पर निर्भर नहीं है बल्कि व्यक्तियों, परिस्थितियों,समय और संयोग पर भी निर्भर है। जब तक सब कुछ हमारी इच्छा, आकांक्षा और प्लांनिंग के हिसाब से चलता है तब तक तो सब कुछ ठीक मालूम पड़ता है। मगर जीवन में सब कुछ हमारे चाहने के मुताबिक नहीं होता। कल्पना करें कि एक हंसता खाता पीता खुश मध्यम वर्गीय परिवार है जिसमें सब कुछ ठीक चल रहा था। अचानक एकमात्र बेटा किसी दुर्घटना में अपाहिज होकर बेड पर आ जाता है और कोइ काम लायक नहीं रहता है या दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो जाती है।

एक दूसरे उदाहरण में परिवार का एकमात्र कमाने वाला मुखिया अचानक लाइलाज कैंसर से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

 अब क्या वह परिवार खुश रह पाएगा या उसकी जिन्दगी दुख के अथाह सागर में डूब जाएगी। अब ऐसी परिस्थिति में अगर उस परिवार ने अपने अंदर आध्यात्मिक दृष्टिकोण विकसित किया होता तो वह इस दुख का सामना आसानी से कर सकते थे।

आज का जीवन तनाव से भरा है। कभी सोचा है कि इस तनाव का प्रमुख कारण क्या है। हमारा जीवन तनाव से भरा है और फिर भी हम सोचते हैं कि हम खुश हैं। काम का तनाव, परिवार का तनाव और संबंधों का तनाव तो अपनी जगह है ही। मगर बहुत सी छोटी छोटी चीजों में भी हम तनाव ग्रस्त हो जाते हैं जिनसे चाहे तो हम बच सकते हैं।  आजकल तो मोबाइल में बैटरी कम हो जाती है तो हम तनाव में आ जाते हैं। वाई फाई का सिग्नल नहीं आ रहा है तो तनाव में हैं, टैक्सी बुक करने पर टैक्सी नहीं आती है तो हम तनाव में आ जाते हैं। गाड़ी ड्राइव करके शहर में कहीं जा रहे हो तो पूरे रास्ते हमारा तनाव देखने लायक होता है। 

आजकल सोशल मीडिया पर एक जोक चल रहा है कि "जो व्यक्ति घर से ऑफिस कार ड्राइव कर के जाते समय पूरे रास्ते किसी को गाली न दे तो समझो कि उसने परम शांति की प्राप्ति कर ली है।" पारिवारिक तनाव की भी कमी नहीं है। संतान अगर नालायक निकल गया, पति अगर शराबी या निठल्ला निकल गया, पति पत्नी का एक दूसरे के प्रति व्यवहार ठीक नहीं है तो, बहू अच्छी नहीं है या सास अच्छी नहीं है आदि आदि। ये सारी चीजे तनाव पैदा करती हैं। बहुत सारा तनाव तो सिर्फ इसलिए पैदा हो जाता है कि हम अपनी उम्मीदों (expectations) को बढ़ा चढ़ा कर रखते हैं और अगर ये उम्मीदें पूरी नहीं होती है तो फिर हम तनाव में आ जाते हैं। अगर इस तरह तनाव हम पर हावी रहेगा तो हम खुश होने का दावा कैसे कर सकते हैं? देखा जाय तो जिन सांसारिक वस्तुओं या व्यक्तियों से हमें खुशी मिलती है वे ही परिस्थिति बदलने पर दुख का कारण बन जाते हैं। 

तो क्या बुरी परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी होने दे और अपने जीवन को तनाव ग्रस्त बना लें? बिल्कुल नहीं। ऐसा होने दिया तो जीवन न केवल दुखमय होते जाएगा बल्कि कई तनाव जनित मनो वैज्ञानिक समस्याएं भी पैदा हो जाएगी जैसे अवसाद यानि डिप्रेशन। और जब मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा होगी तो बुरा प्रभाव शारीरिक स्वास्थ पर भी पड़ेगा। 

मेरा इस संबंध में एक सिद्धांत (motto) है कि "Try for the best but be prepared for the worst" यानी सबसे अच्छे के लिए प्रयास करें लेकिन सबसे खराब के लिए तैयार रहें।

 आपने देखा होगा कि बहुत से लोगों के पास सारी सुख सुविधाएं होती हैं फिर भी वे दुखी और उदास हैं, क्यों। क्योंकि जीवन के प्रति उनका नजरिया सांसारिक है, आध्यात्मिक नहीं।

याद रखिए जब तक जीवन के प्रति नजरिया नहीं बदलेगा तब तक  जीवन सुखी और आनंदमय नहीं रहेगा।

अपना नजरिया कैसे बदलें? सांसारिक वस्तुओं या व्यक्तियों से अपना लगाव (attachment) कम करते जाना और शाश्वत शक्तियों में अपने विश्वास को बढ़ाते जाना। यह शाश्वत शक्ति आपकी आत्मा भी हो सकती है, दूसरे व्यक्ति की आत्मा हो सकती है, प्रकृति या परम आत्मा भी हो सकती है। आपका लगाव व्यक्ति के शरीर से नहीं उसकी आत्मा से होना चाहिए। आपका लगाव वस्तुओं से नहीं होना चाहिए। वस्तुओं को आप एक साधन से ज्यादा कुछ नहीं माने। उदाहरण के लिए आपके पास एक कार है तो उसे एक संपत्ति मान कर उससे लगाव न रखें बल्कि उसे मात्र एक यातायात का साधन माने। अगर आपके पास मंहगे कपड़े हैं तो इन्हे तन ढकने का एक साधन मानिए और कुछ नहीं। अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों का निर्वहन ये सोच कर करें कि आपको यह एक रोल दिया गया है और बाकी लोग भी जीवन के रंग मंच पर अपना रोल निभा रहे हैं। फिर उनसे इतना लगाव (attachment) क्यों? लगाव आत्मा से रखें, शरीर से नहीं।

अपना ध्यान (फोकस) बाहरी दुनिया से हटाकर आंतरिक दुनिया (inner self) की तरफ ले जाएं।

प्रतिदिन कुछ समय के लिए एकांत में बैठकर शाश्वत के प्रति ध्यान करना भी काफी उपयोगी सिद्ध होता है।

आजकल बहुत से लोग देर से सोते हैं और सोने से पहले मोबाइल में व्यर्थ की बातों में समय बर्बाद करते हैं जिससे तनाव में वृद्धि ही होती है और ठीक से नींद नहीं आती है। इसलिए सोते समय मन को शांत करने का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए आध्यात्मिक वाणी सुननी चाहिए या आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़नी चाहिए। 

आध्यात्मिकता जगाने के लिए हमें अपने अंदर सकारात्मकता भी जगानी होगी। किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना के सकारात्मक पहलू पर ही ध्यान देना होगा। इससे हमारा तनाव कम होगा और मन शान्त करने में मदद मिलेगी।

कभी आपने सोचा है कि किसी महा पुरुष या धार्मिक गुरु के पास जाने से क्या लाभ होता है।वहां जितनी देर तक हम उस महा पुरुष के प्रवचन या वाणी सुनते हैं उतनी देर तक के लिए हमारा तनाव गायब हो जाता है और हम परम शांति का अनुभव करते हैं। इसका कारण ये है कि वहां के आध्यात्मिक वातावरण और संत वाणी के कारण हमारे अंदर थोड़ी देर के लिए ही सही आध्यात्मिकता का उदय होता है और जीवन के प्रति हमारा नजरिया बदल जाता है जिससे हमें आनन्द और शांति का अनुभव होता है।

जरा सोचिए कि अगर ये आध्यात्मिकता हमारे भीतर स्थायी रुप से जागृत हो जाय तो हमारा जीवन कितना शांत और सुखमय हो जाएगा।

-- द्वारा राज कुमार


Monday 18 January 2021

नारियल का पेड़

 सालों बाद आज नारियल का पेड़ फलों से लदा है।

सुंदर, सुडौल, मीठे और मनमोहक।

कुछ अभी छोटे तो कुछ बृहद।

वही नारियल का पेड़ जो झूमता रहता है

मेरे फ्लैट की बाल्कनी के सामने।

वर्षों से जो हमारे सुख दुख का साथी।

झूमते रहते हैं उसके पत्ते और डालियां।

अक्सर वो बांहे पसार देता है हमारी बाल्कनी में।

जो हमारी शांत जीवन यात्रा का साथी।

हमारे थके मन को सुकून देने वाला।

कितने ही जीव जंतुओं को पनाह देने वाला।

वही नारियल जिस पर गिलहरियां दिन भर अठखेलियां करती दौड़ती भागती रहती ।


वही जिस पर कौवों ने कभी घोंसला बनाया था

और अंडे दिए थे बच्चों का कौतूहल बढ़ाते हुए।

आज सालों बाद यह फला फूला है।

क्या यह हमारे उज्ज्वल भविष्य का द्योतक है। 


Wednesday 15 April 2020

रिवाइंड

कोरोना के चलते मानो पूरी दुनिया रिवाइंड मोड में आ गयी है।आजकल टेलीविजन खोलो तो पता चलता है कि लगभग सारे कार्यक्रम या सीरियल रिवाइंड होकर चल रहे हैं।चूंकि टीवी या फिल्मों की सूटिंग पर रोक है तो पुराने कार्यक्रमों को ही दुबारा तिबारा दिखाया जा रहा है।दूरदर्शन तो मानो रिवाइंड होकर अस्सी के दशक में पहुंच गया और रामायण एवं महाभारत आदि सीरीयलों को फिर से झाड़ पोंछ कर जनता के सामने परोसना शुरू कर दिया और दर्शकों ने भी उन्हें हाँथो हांथ लिया।
केवल टीवी के कार्यक्रम ही रिवाइंड मोड में नहीं आये बल्कि मानो पूरा भारत रिवाइंड मोड में आ गया।लोग घर में बंद होकर पुराने दिनों को याद कर रहे हैं।लोग सोच रहे हैं कि पहले जीवन में इतनी भाग दौड़ नहीं थी और आवश्यकताएं कितनी सीमित थी।पुराने जमाने में सामान्यतः लोग अपना काम स्वयं किया करते थे।परिवार के साथ ज्यादा समय व्यतीत करते थे।कोरोना के कारण मानो पुराने दिन लौट आये हों।लोगों को सूरज का निकलना और डूबना दिखाई देने लगा है।पक्षियों की आवाजें सुनाई देने लगी हैं।लोग घर पर बैठे बैठे पुराने अलबमों के पन्ने पलट रहे हैं।बहुत से लोग अपने अंदर की सृजनशीलता की तलाश करने लग गए हैं।कोइ कविता लिख रहा है तो कोई पेंटिंग बना रहा है और कोइ संगीत में हांथ आजमा रहा है।फिल्मी कलाकारों का तो कहना ही क्या।कोई बरतन मांज रहा है तो कोई झाडू पोंछा कर रहा है और कोई किचन में हांथ आजमा रहा है।
प्रकृति भी मानो रिवाइंड मोड में आ गयी है और स्वयं को 'रीबूट' कर रही है।गंगा और जमुना का पानी निर्मल हो गया है।समुन्द्र के किनारे पर जलीय जीवों का आगमन होने लगा है।शहरों की हवा साफ हो गयी है।प्रदूषण का कहीं अता पता नहीं है।यहां तक कि शहर की सड़कों पर जंगली जानवर स्वछन्द रूप से विचरण करने लगे हैं।खबर आई है कि एवरेस्ट पर हर साल हजारों लोग चढ़ाई करने वाले गायब हो गए हैं और कुछ दिनों के लिए ही सही,हिमालय की उत्तुंग चोटियां चैन की सांस ले सकेगी।लाखों गैलन पेट्रोल डीज़ल फूँकर हवा में जहर भरने वाले वाहन और वायु यान शांत बैठे हुए हैं।
चारों तरफ एक अजीब सन्नाटा पसरा हुआ है।इस सन्नाटे में मौत की आहट भी सुनाई पड़ती है।कोरोना यमदूत बन कर आया है।किसके प्राण हर लेगा कोई नहीं जानता।लोगों ने इस यमदूत के भय से घर के दरवाजे बंद कर लिये हैं।लोग अनिश्चितता, निराशा, अविश्वास, डर और चिंता के साथ जी रहे हैं।
कोरोना ने हमें स्वयं के अंदर झांकने का अवसर दिया है।हम क्या हैं और क्या होना चाहते हैं ,इसे सोचने का फिर से अवसर आया है।
यह विपत्ति हमें कहती है कि जरा रुको और सोचो -
क्या शीतल हवा का झोंका हमें आह्लादित करता है?क्या वर्षा की रिमझिम फुहारें हमें रस सिक्त करती हैं?क्या पक्षियों की चहचहाहट और नदी की कल कल ध्वनि हमारे कानों में मधुर संगीत रस घोलती है?क्या प्रकृति का हर क्षण बदलता रूप हमारी चेतना को एक नई अनुभूति प्रदान कर रहा है?क्या भोर की निःशब्दता में हमारे अंतर का ब्रह्म नाद जागृत होता है?
हमारे प्राचीन ग्रंथो और मनीषियों ने सांसारिकता के बजाय आध्यात्मिकता पर जोर दिया है,उस पर सोचने का समय आया है।क्या हम व्यर्थ भौतिकता में डूब चुके मन मस्तिष्क को 'रिवाइंड' कर पायेंगे।
द्वारा राज कुमार

Monday 28 October 2019

'पोर पोर' पर


मनुष्य के शरीर पर जो लघु और कोमल बाल होते हैं उन्हें ही रोम या रोआं कहा जाता है. इन रोम की संख्या असंख्य होती है.इंसानों के अलावा जानवरों में भी रोम होते हैं. जीव वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो रोम का जीवों के शरीर के लिए बड़ा महत्त्व है. शारीरिक तापमान के नियंत्रण के लिए ये बड़ा काम आता है. इन रोमों की जड़ में अत्यंत लघु रोम छिद्र होते हैं जो पसीना छोड़कर तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं.देखा जाय तो यह त्वचा के लिए एक सुरक्षा कवच का काम करता है. अपने देखा होगा कि जब अत्यधिक ठण्ड पड़ती है तो शरीर के रोयें खड़े हो जाते हैं.और ऐसा प्रायः सभी जीवों के साथ होता है.ऐसा करके शरीर अपने को ठण्ड से बचाता है.शरीर के रोयें अत्यधिक संवेदनशील होते हैं.किसी के शरीर पर कम तो किसी के ज्यादा रोयें होते हैं. शरीर के रोयें मानसिक दशा से भी बहुत प्रभावित होते हैं.भय, तनाव या रोमांच  की दशा में रोयें खड़े हो जाते हैं.
शरीर के रोम या कहे ‘रोम रोम’ शब्द का कवियों और साहित्यकारों के लिए बड़ा महत्व है.उसी तरह धार्मिक व्यक्तिओं और विद्वानों द्वारा भी इस शब्द का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है. प्रेम या भक्ति की पराकाष्टा दिखाने वाले ये जताते हैं मIनो ईश्वर उनके रोम रोम में बसा हुआ है या वे किसी को रोम रोम से प्रेम करते हैं.उदहारण के लिए,तुलसीदास जी ने बाल कांड में लिखा है :-
"ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै 
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर रहै

पुनः एक भजन में कहा गया है " हे रोम रोम में बसने वाले राम ..."
एक भजन में कहा गया है - " रोम रोम पुलकित हो उठता है जिसके पावन नाम से ....."

कवि महेंद्र भटनागर अपनी कविता " कचनार " में लिखते हैं :-
“पहली बार
मेरे द्वार
कुछ ऐसा झूमा कचनार
रोम-रोम से जैसे उमड़ा प्यार!
अनगिन इच्छाओं का संसार!
पहली बार
ऐसा अद्भुत उपहार! ”
कवि अजंता शर्मा ने अपनी कविता मल्हार में लिखा है :-
“अचानक
किसी बसंती सुबह
तुम गरज बरस
मुझे खींच लेते हो
अंगना में .
मैं तुममें
***********
************
मेरा रोम रोम
तुम चूमते हो असंख्य बार .
अपने आलिंगन में
भिगो देते हो
मेरा पोर पोर.
मेरी अलसाई पलकों पर
शीत बन पसर जाते हो…”

कवि ज्योति के शब्द देखें :-
“मेरे
रोम रोम
पीर बहती रही।
मन की तलहटी जरखेज़
होती रही।।
पोर पोर कविता
उतरती रही ,
मर मर
मैं जीती रही
घास
सी ढीठ थी ,
उखाड़ी गई बारंबार
फिर फिर मैं
उगती रही।
मेरे रोम रोम
पीर बहती रही।
मेरे पोर पोर कविता उगती रही ।।“

एक और मिलता जुलता शब्द है :- पोर पोर .इस शब्द का प्रयोग भी हिंदी साहित्य में खूब हुआ है.जैसे विमल राजस्थानी की ये पंक्तियाँ देखिये :-

“टूट रहा है अंग-अंग रे पोर-पोर दुखती थकान से
पथ का कोई छोर दीखे
नभ-नयनों की कोर दीखे
निशि द्रुपदा के चीर-हरण-सी
अमर सुहासी भोर दीखे
मन ऊबा इस सन्नाटे से, साँय-साँय सुनसान से
पोर-पोर दुखती थकान से”

कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेम या भक्ति या भावनाओं कि गहनता को प्रकट करने के लिएरोम रोम” शब्द का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है और इसलिए ये शब्द सिर्फ एक जीव वैज्ञानिक अवधारणा का द्योतक ही नहीं है अपितु एक साहित्यिक अवधारणा का भी द्योतक है.

 द्वारा                राज कुमार