Sunday 13 March 2016

'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' धारावाहिक के दादाजी का शब्द चित्र प्रस्तुत है |

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टप्पू  के दादाजी यानि जेठा लाल के पिताजी एक बहुत ही सीधे सादे व्यक्तित्व के मालिक हैं. उनकी दुबली पतली काया है. वेश भूषा पारम्परिक गुजराती परिवार के मुखिया की है. धोती कुरता या पैजामा बंडी और सर पर टोपी।  जब बाहर निकलते हैं तो हाथ में छड़ी  होती है. स्वाभाव से बहुत ही सीधे एवं नरम किन्तु जरुरत पड़ने पर तुरत ही गरम भी हो जाते हैं. स्वभाव में जिद्दीपन भी है जो टप्पू के शादी रचवाने वाले प्रषंग में सामने आता है. उनका बचपन गावों में बीता है और वहां की स्मृतियाँ अभी भी उनके जेहन में जीवंत है. बचपन के दोस्तों को वे अभी भी याद करते हैं.

दादाजी हमारे पारम्परिक मूल्यों वाले भारतीय परिवार के प्रतीक हैं. परिवार  में एक बुजुर्ग की हैसियत से उनका उचित मान सम्मान है. जेठा लाल  या उसकी पत्नी दया कभी भी उनसे  गर्दन उठाकर  बात करने की नहीं सोच सकते. उनकी बातों का सभी क़द्र करते हैं. जरुरत पड़ने पर वे जेठा लाल को डाँट सकते हैं और उसे उसके बचपन की कारगुजारियां याद दिला सकते हैं. टप्पू एवं अपनी बहु दया को वे बहुत प्यार करते हैं और कभी भी उन्हें डांटते फटकारते नहीं हैं. जेठा  से विवाद की स्थिति में उनका ही पक्ष लेते हैं. सोसाइटी में भी एक बुजुर्ग की हैसियत से उनका उचित मान सम्मान होता है. विशिष्ट अवसरों पर उन्हें एक नेतृत्व कर्ता की भूमिका दी जाती है. बिना मांगे वे कोई सलाह नहीं देते हैं किन्तु यदि कोई सलाह देते हैं तो उसे सभी स्वीकार करते हैं.

 सामान्यतः वे अपनी स्वयं की दिनचर्या का पालन करते हैं. सुबह में अखबार पढ़ना और फिर टहलने निकलना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है. अखबार पढने की भी उनकी विशिष्ट शैली है. चश्में के ठीक नीचे अखबार को लाना और फिर उसे जल्दी जल्दी बाये से दांयें करना मानो वे पृष्ठ को स्कैन कर रहे हों.

दादाजी सामान्यतः परिवार की बातों या समस्याओं में उलझते नहीं हैं बल्कि इन सबसे निर्लिप्त वे अपनी दिनचर्या में मशगूल रहते हैं , जब तक कि कोई समस्या उनके सामने नहीं लाई जाए. जाहिर है जब  समस्या बड़ी हो जाती है तभी उसे दादाजी के सामने लाया जाता है और यह भी स्पष्ट है कि ऐसे मामलों में सबसे पहली डाँट ‘जेठिया’ यानि जेठा लाल को ही सुननी पड़ती है.
                             
 दादाजी सम्माननीय हैं , प्यारे हैं और आज के भौतिक युग में जहाँ पारिवारिक मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है , वे दर्शको को पारिवारिक मूल्यों का बोध कराते हैं।  आस्चर्य है कि पूरी सोसाइटी में बाक़ी सारे परिवार न्युक्लीअर यानि एकल परिवार हैं जहाँ किसी बुजुर्ग का कोई अस्तित्व नहीं है. ऐसे में दादाजी रेगिस्तान में नखलिस्तान की तरह हैं और समाज में बुजुर्गो के महत्व तथा उनकी आदर्श भूमिका को रेखांकित करते हैं.

                                                                                       द्वारा राज कुमार 

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