मनुष्य के शरीर पर जो लघु और कोमल बाल होते हैं उन्हें ही रोम या रोआं कहा जाता है. इन
रोम की संख्या असंख्य होती है.इंसानों के अलावा जानवरों में भी रोम होते हैं. जीव वैज्ञानिक
दृष्टिकोण से देखें तो रोम का जीवों के शरीर के लिए बड़ा महत्त्व है. शारीरिक
तापमान के नियंत्रण के लिए ये बड़ा काम आता है. इन
रोमों की जड़ में अत्यंत लघु रोम छिद्र होते हैं जो पसीना छोड़कर तापमान को नियंत्रित
करने में मदद करते हैं.देखा जाय तो यह त्वचा के लिए एक सुरक्षा कवच का काम करता है. अपने
देखा होगा कि जब अत्यधिक ठण्ड पड़ती है तो शरीर के रोयें खड़े हो जाते हैं.और ऐसा प्रायः
सभी जीवों के साथ होता है.ऐसा करके शरीर अपने को ठण्ड से बचाता है.शरीर के रोयें अत्यधिक
संवेदनशील होते हैं.किसी के शरीर पर कम तो किसी के ज्यादा रोयें होते हैं. शरीर
के रोयें मानसिक दशा से भी बहुत प्रभावित होते हैं.भय, तनाव या रोमांच की दशा में रोयें खड़े हो जाते हैं.
शरीर के रोम या कहे
‘रोम रोम’ शब्द का कवियों और साहित्यकारों के लिए बड़ा महत्व है.उसी तरह धार्मिक व्यक्तिओं
और विद्वानों द्वारा भी इस शब्द का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है. प्रेम
या भक्ति की पराकाष्टा दिखाने वाले ये जताते हैं मIनो ईश्वर उनके रोम रोम में बसा हुआ
है या वे किसी को रोम रोम से प्रेम करते हैं.उदहारण के लिए,तुलसीदास जी ने बाल कांड
में लिखा है :-
"ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै ॥
पुनः एक भजन में कहा
गया है " हे रोम रोम में बसने वाले राम ..."
एक भजन में कहा गया
है - " रोम रोम पुलकित हो उठता है जिसके पावन नाम से ....."
कवि महेंद्र भटनागर
अपनी कविता " कचनार " में लिखते हैं :-
“पहली बार
मेरे द्वार
कुछ ऐसा झूमा कचनार
रोम-रोम से जैसे उमड़ा प्यार!
अनगिन इच्छाओं का संसार!
पहली बार
ऐसा अद्भुत उपहार! ”
कवि अजंता शर्मा ने अपनी कविता मल्हार में लिखा है :-
“अचानक
किसी बसंती सुबह
तुम गरज बरस
मुझे खींच लेते हो
अंगना में .
मैं तुममें
***********
किसी बसंती सुबह
तुम गरज बरस
मुझे खींच लेते हो
अंगना में .
मैं तुममें
***********
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मेरा रोम रोम
तुम चूमते हो असंख्य बार .
अपने आलिंगन में
भिगो देते हो
मेरा पोर पोर.
मेरी अलसाई पलकों पर
शीत बन पसर जाते हो…”
तुम चूमते हो असंख्य बार .
अपने आलिंगन में
भिगो देते हो
मेरा पोर पोर.
मेरी अलसाई पलकों पर
शीत बन पसर जाते हो…”
कवि ज्योति के शब्द देखें :-
“मेरे
रोम रोम
पीर बहती रही।
मन की तलहटी जरखेज़
होती रही।।
पोर पोर कविता
उतरती रही ,
मर मर
मैं जीती रही
घास
सी ढीठ थी ,
उखाड़ी गई बारंबार
फिर फिर मैं
उगती रही।
मेरे रोम रोम
पीर बहती रही।
मेरे पोर पोर कविता उगती रही ।।“
रोम रोम
पीर बहती रही।
मन की तलहटी जरखेज़
होती रही।।
पोर पोर कविता
उतरती रही ,
मर मर
मैं जीती रही
घास
सी ढीठ थी ,
उखाड़ी गई बारंबार
फिर फिर मैं
उगती रही।
मेरे रोम रोम
पीर बहती रही।
मेरे पोर पोर कविता उगती रही ।।“
एक
और मिलता जुलता शब्द है :- पोर पोर .इस शब्द का प्रयोग भी हिंदी साहित्य में खूब हुआ
है.जैसे विमल राजस्थानी की ये पंक्तियाँ देखिये :-
“टूट रहा है अंग-अंग रे पोर-पोर दुखती थकान से
पथ का कोई छोर न दीखे
पथ का कोई छोर न दीखे
नभ-नयनों की कोर न दीखे
निशि द्रुपदा के चीर-हरण-सी
अमर सुहासी भोर न दीखे
निशि द्रुपदा के चीर-हरण-सी
अमर सुहासी भोर न दीखे
मन ऊबा इस सन्नाटे से, साँय-साँय सुनसान से
पोर-पोर दुखती थकान से”
पोर-पोर दुखती थकान से”
कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेम या भक्ति या भावनाओं कि गहनता को प्रकट करने के लिए “रोम रोम” शब्द का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है और इसलिए ये शब्द सिर्फ एक जीव वैज्ञानिक अवधारणा का द्योतक ही नहीं है अपितु एक साहित्यिक अवधारणा का भी द्योतक है.
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ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
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